शांत चन्द्रमा Shant Chandrama Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

शांत चन्द्रमा Shant Chandrama

शांत चन्द्रमा

शांत चन्द्रमा
उठ रहा आकाश माँ
फैलाये बाहें धरतीपटल पर
रेंगता मानो चांदनी के बल पर।

वो भी मुस्कुरा रही
जिह्वा होठ में दबाएं दिखाए रही
अपनी शालीनता और प्यार की एक पहचान
वो भी रखकर आन बान ओर शान।

तारे टिमटिमा रहे थे उसकी आड़ में
लड़ा रहे थे लाड उसकी गोद में
कभी आँख मोद लेते तो कभी हँस लेते
अपनी ख़ुशी का आगाह धीरे से कर लेते।

एक ही चादर है
सब रहते भीतर है
किसीका चलन ज्यादा कम नहीं
सब की खूबसूरती की बोलबाला यहीं।


एक ही चादर है
सब रहते भीतर है
किसीका चलन ज्यादा कम नहीं
सब की खूबसूरती की बोलबाला यहीं।

चाँद है बड़ा भाई
सब की आँख उसपर ललचाई
पर है बड़ी चाह रखने वाली परख
प्यार करने वाले कभी नहीं बनते मूरख

शांत चन्द्रमा Shant Chandrama
Saturday, January 14, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 14 January 2017

a joy montebon Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 14 January 2017

Jagjit Singh Jandu Comments welcome Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 14 January 2017

चाँद है बड़ा भाई सब की आँख उसपर ललचाई पर है बड़ी चाह रखने वाली परख प्यार करने वाले कभी नहीं बनते मूरख

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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