विहार करने दे मान्यवर.. vihaar karne Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

विहार करने दे मान्यवर.. vihaar karne

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विहार करने दे मान्यवर

कवि होता है आखिरकार कवि
नहीं कैद पिंजड़े में कोई पंछी
कुछ भी कह दो उसे लिखने को
फिर छोड़ दो उसे अपने हाल पे मरने को

'आप यह काव्य यहां पर लिख नहीं सकते '
जो हम ने कहा है वो ही लिख सकते
आप जा कर कही ओर सिमट जाए
यहाँ तो सिर्फ जो हां कहेगा 'वो ही लिख पाए'

आप कैसे कवी है जो लिख नहीं सकता?
अपने आप में पूर्णता दिखा नहीं सकता
में सोचता रह गया इसी सोच पर
ये कैसा शहर है जहाँ सोच भी है दाँव पर?

ये नहीं कहते 'हमने दूकान चलाना है'
मनमानी को खूब जामा पहनाना है
उभरते हुए को मदद करना तो एक बहाना है
हम ने तो बस नाम कमाना है

चलो अच्छाई में बुराई नजर नहीं आनी चाहिए
किसी सोच को बूरी है कहकर निगरानी नहीं रखनी चाहिए
कवि का काम है लिखना निष्पाप काव्य रचनाएं
फिर चाहे उसे कोई अपनाए या ना अपनाए

में बहेक गया था इस दुनियादारी में
कहाँ चल पडा जगत को संमजाने में?
सब सयाने और अपने काम में माहिर है
अपने धंधे में काबिल और हीर भी है

कवि के पंख कतरना यानी मृत्युघंट को बजाना
खिलते हुए पुष्प को पाँव तले रोदना
ना उसकी खुशबू को पहचान ना और महेकने देना
इक छोटे से माहोल में बांध लेना और कुंठित कर देना

मुक्त पंछी को आप गगन में विहार करने दे मान्यवर
नहीं लगाना कोई पाबन्दी उनके लिखने और विचारपर
यह एक मुक्त मंन की धारा है पानी के बहाव की तरह
जिनका काम है शांति का पैगाम और मिटाना कलह

Friday, July 12, 2013
Topic(s) of this poem: hindi
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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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