पड़ाव Poem by DineshK Pandey

पड़ाव

Rating: 4.0

बीत गयी बातों में,
रात वह खयालों की,
हाथ लगी निंदयारी जिंदगी,
आंसू था सिर्फ एक बूंद,
मगर जाने क्यों,
भीग गयी है सारी जिंदगी?
वह भी क्या दिन था?
जब सागर की लहरों ने,
घाट बंधी नावों की
पीठ थपथपाई थी!
जाने क्या जादू था!
मेरे मनुहारों में?
चांदनी
लजा कर इन बाहों तक आयी थी!
अब तो गुलदस्ते में
बाकी कुछ फूल बचे
और बची रतनारी जिंदगी
मन के आइने में
उगते जो चेहरे हैं
हर चेहरे में
उदास हिरनी की आंखें हैं,
आंगन से सरहद को जाती,
पगडंडी की दूबों पर
बिखरी कुछ बगुले की पांखें हैं
अब तो हर रोज
हादसे?
गुमसुम सुनती है
अपनी यह गांधारी जिंदगी,
जाने क्या हुआ?
नदी पर कुहरे मंडराए
मूक हुई सांकल, दीवार हुई बहरी है
बौरों पर पहरा है—
मौसमी हवाओं का
फागुन है नाम
मगर जेठ की दुपहरी है
अब तो इस बियाबान में
पड़ाव ढूंड रही
मृगतृष्णा की मारी जिंदगी।

Sunday, November 8, 2015
Topic(s) of this poem: classic
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