(१)
आजकल जब देखो
सुबह कुहरे के आग़ोश में
लिपटी नजर आ रही है.
हे भगवान्!
तुम्हारी दुनिया कहाँ जा रही है?
(२)
सुना है अब बेशर्म सुबह
कुहरे के साथ गठबंधन कर
उसकी बाहों में मचल रही है.
अकेला, असहाय, हतभाग सूरज लाचार है,
उसकी एक नहीं चल रही है.
(३)
मन आज फिर उदास है
चिंतित है
अनमना है,
खिड़की से बाहर झांककर देखा
तो पाया कि -
सूरज गायब है
और कुहरा घना है.
(४)
कुहरे की ओट में छिपी सुबह
न जाने क्या-क्या गुल खिला रही है.
पहले तो लगा था कि -
दाल में कुछ काला है,
पर अब तो पूरी की पूरी दाल ही
काली नजर आ रही है.
(५)
इन दिनों ये दिलफेंक कुहरा
सुहानी सुबह के इर्द-गिर्द
कुछ इस तरह मंडरा रहा है.
मानो, कोई लफंगा
किसी ख़ूबसूरत लड़की पर डोरे दाल रहा है.
(६)
मित्रों,
आज सुबह
जब सूरज दादा ने
मनचले कुहरे को ललकारा
तो, नई-नवेली सुबह का पीछा छोड़
भाग गया वो आवारा.
A well written poem sir...really good one...thanks for Sharing :)
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Bohot hi khoobsurat ehsaas..ye Shakeel Azmi ka sher aapki nazr....10 kohraa kohraa sardii hai kaa.np rahaa hai puuraa gaa.nv din ko taptaa suuraj de raat ko kambal de maalik