किसको कहूँ ये बात मगर, वो मैं नहीं मेरे हमसफ़र Poem by Priya Guru

किसको कहूँ ये बात मगर, वो मैं नहीं मेरे हमसफ़र

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रस्ते अधूरे छोड़ कर, अपनो से नाता मोड़ कर
पत्ते इश्क़ के तोड़ कर, बेपरवाह गुस्ताख़ जोड़ कर
एक डगर फिर एक डगर, इस नगर कभी उस नगर
शामें लिए हर राह पर, अश्को के सहारे रात भर
नींदे थी किनारे रात भर, दिलभर का बन हमसफ़र
गुज़र रहा था एक शहर, बस एक शहर और एक शहर
किसको कहूँ ये बात मगर, वो मैं नहीं मेरे हमसफ़र

वो शामें बस तेरी साथ भर, दिल भी थोड़ा नासमझ है पर
कैसे जियूं मैं अब अगर, दिलभर नहीं वो हमसफ़र
ये बात लिए फिरता रहूँ, या बन अँधेरा मैं भिछूँ
उस दरिया में मैं जा मिलूं, उस संगम के किनारे मैं सुनूँ
किसको कहूँ ये बात मगर, वो मैं नहीं मेरे हमसफ़र

एहसास करूँ कुछ इस क़दर, हर नाम में जी लूं तुझे अगर
क्यों बन आवारा मैं फिरूँ, नए नक़्शे क़दम क्यों मैं चुनु
बर्बाद खण्डार कह रहे, सूखे लम्हे सब सुन रहे
रस्ते पैमाने पर हो लिए, तेरे शहर में हम खड़े
देहलीज़ है आँगन में अगर, और पता है बस तेरे नाम पर

लम्हा फिर वो ढह गया, दरिया नया कोई बह गया
मैं संग में एक रात लिए, सब मसले मंजर साथ लिए
थी कश्ती किनारे औड कर, कुछ बरसा बादल चोट पर
शहर नया जयों मिल गया, उस गली जब मैं मुड़ गया
ले आई आवारगी किस डगर, ये उस शहर थी अब इस शहर
किसको कहूँ ये बात मगर, वो मैं नहीं मेरे हमसफ़र

Tuesday, January 12, 2016
Topic(s) of this poem: introspection,love,heartbreak
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 12 January 2016

बेहद भावपूर्ण. आत्म-निरीक्षण तथा मानव व्यवहार के विभिन्न पहलुओं को सामने लाती है यह कविता. अद्वितीय. एक उद्धरण: लम्हा फिर वो ढह गया, दरिया नया कोई बह गया / ले आई आवारगी किस डगर, ये उस शहर थी अब इस शहर / किसको कहूँ ये बात मगर, वो मैं नहीं मेरे हमसफ़र

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