हम गये थे उनके शहर, रूठकर सब ख्वाबो से अपने
मिटाकर इश्क़ के लहूँ को, दरबक्श वक़्त से मुकरकर अपने
जीले-इलाही देखी क्या उनकी, या फिर कोई पहरा था उनकी अदाओं का हम पर
इशारे तोह थे सब इस ओर पर, एक उठी निगाह न बैठी सायें पर अपने |
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem