बेरोज़गारी या मजबूरियां
बेरोज़गारी और मजबूरियों
में हम शहर आ बैठे
अपने गांव की मिट्टी को भूला
शहर की सड़कोंकी धूल से दिल लगा बैठे,
देखो, ये हम कहाँ आ बैठे...! ! !
गांव के दोस्तो से बहुत दूर
शहर में कितने दुश्मन बना बैठे
देखो, ये हम कहाँ आ बैठे...! ! !
मां के पकवानों से दूर
हम पिज़्ज़ा, बर्गर और चाऊमिन से दिल लगा बैठे
देखो, ये हम कहाँ आ बैठे...! ! !
अब वक़्त ही नहीं मिलता कि घर पर थोड़ा फोन लगाए,
माँ की तबीयत और पिताजी का हाल जान पाये ll
गांव में तो हर मोड़ पर रिश्ते बन जाते थे,
जो जिंदगी भरहमारा साथ निभाते थे ll
मगर शहर का तो हर रूप ही निराला है,
यहां तो रूम के बगल वाला भी
जान के अनजान बनने वाला है।।
कभी-कभी तो लगता है कि हम गांव छोड़ के खुद के पैरों पे कुल्हाड़ी मार बैठे,
देखो, ये हम कहाँ आ बैठे...! ! !
जानें, अनजाने में हम शहर आकर अपना सब कुछ गँवा बैठे, - -
देखो, ये हम कहाँ आ बैठे...! ! !
एक छोटा सा एहसास
शरद भाटिया
कविता की पहली पंक्ति ही उन बातों की निशानदेही कर देती है जिससे गाँव का व्यक्ति शहर में आता है. हाँ, शहर में आ कर वहां के माहौल में ढलना भी एक संघर्ष है. नास्टैल्जिया होना स्वाभाविक है पर विषाद भी होता है. कविता में इस संघर्षण को संवेदनशीलता से उकेरा गया है. धन्यवाद.
Every phase is important Flowing river never wonder But nurture through the path Until in sea she unite Life blooms in progression Nurture history for generation Admiring achievement special. Beautiful reflection on village life. Beautiful.
दूर के ढोल सुहावने होते हैं, ढोल की पोल खुल जाये तब पता चलता है, एक बेहतरीन कविता शहर और गांव की ज़िन्दगी का अंतर बतलाती हुई,10++
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bahut sundar.. not easy to cope with.. clear 10 चेहरा बदला गुरूवार, ३ सितम्बर २०२० सर सलामत तो पगड़िया सारी कुदरत का प्रकोप बिगाड़ देता है व्यवस्था हमारी पर हम है तैयार निपटने को मिलझुलकर सम्हाल लेंगे सबको। डॉ जाडीआ हसमुख