जुवां की भाषा निरर्थक रही
, दिल की जुवां को समझते हो तुम।
वीरानियों में घिरुं मैं जब भी,
प्रेम की बारिश से बर्षते हो तुम।
लड़खड़ाते हो, गिरते हो, बहकते हो जब भी,
वाहों में मुझको ही भरते हो तुम।
अकड़ते हो, करते हो नाराजगी,
दिल ए जान से प्यार मुझसे करते हो तुम।
झगड़ता हूँ, डरता हूँ, भले रोता हूँ मैं,
मगर दीप आस्था के जलाता हूँ मैं।
भरता हूँ ईंधन, प्रेम का बार-बार
उन्हें उमड़ते तूफ़ानो में, बूझने से बचाता हूँ मैं।
कभी मुस्करा कर, कभी सिसक कर,
हर पल अपने दिल को बहलाता हूँ मैं।
बार-बार धड़कती है धड़कन अगर जोर से,
फिर हाथ तुम्हारा अपने ह्रदय पर रखवाता हूँ मैं।
कभी-कभी खोकर किसी और दुनिया में,
अपनी ही वाहों में सिमटते हो तुम।
बहकर भावनाओ में, कहकर बहुत बातें,
कभी अपनी ही बातों से मुकरते हो तुम।
सहमते हो, करते हो जब महसूस मुझे,
वाहों में खुद ही भरने को कहते हो तुम।
भुलाई है दुनिया सारी मेरे लिए,
दिल ए जान से प्यार मुझसे करते हो तुम।
कभी कहता हूँ, कभी चुप रह लेता हूँ।
हर पल, हर घडी को तुम्हारे समझता हूँ मैं।
टूट जाता है बांध धैर्य का कभी मेरा,
काले बदरों सा तुम पर गरजता हूँ मैं।
पाते हो खुद को जब एकांतवास में,
पोखर में ठहरा जल हो जाता हूँ मैं।
उदाशी में तुम्हारी, तुम्हारी ख़ामोशी में,
खिले फूलों की तरह मुर्झा जाता हूँ मैं।
राहों में प्रेम की जल रहे आस्था के दीपकों में,
क्यों बार-बार जा-जाकर झांकते हो तुम।?
देखों रोशनी जो है राहों पर हमारे फैली,
क्यों ऊँचाई लौ की बार -बार मापते हो तुम।
समर्पण की अग्नि में जलो तो सही,
क्यों दूर से ही तपन आंकते हो तुम।
रूठते हो झगड़ते हो, और मान जाते हो कभी,
हाँ! दिल ए जान से प्यार, मुझसे करते हो तुम।
रचनाकार -प्रेम कुमार गौतम
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