खेल रहा है वक़्त कबड्डी खींच कर एक लकीर Poem by NADIR HASNAIN

खेल रहा है वक़्त कबड्डी खींच कर एक लकीर

खेल रहा है वक़्त कबड्डी खींच कर एक लकीर
बचपन में हम राजा थे अब बनगए यार फ़क़ीर
कंचे कुश्ती चोर सिपाही आँखमिचौली कैरम टिप्पो
ढून्ढ रहा हूँ खेल वही और अपनी वही ख़मीर



आज़ाद थे हम बेख़ौफ़ परिंदे सोच फ़िक्र से कोसों दूर
काग़ज़ के टुकड़ों के आगे होगए कितने हम मजबूर
घर छूटा घर वाले छूटे छूटा दोस्त समाज
दिल रोता है आँखें नम हैं है बेचैन ज़मीर



लोरी सुनाती दादी नानी माँ का आँचल छूट गया
मिली जवानी ज़िम्मादारी बचपन हमसे रूठ गया
बेलौस मुहब्बत बेबाकी से मिलन हमारी होती थी
दूर थी जब तक दुनियां दारी दिल था बहुत अमीर



क्यों कैसे और कहाँ है जाना मंज़िल का कुछ पता नहीं
मसरूफ़ सभी हैं भाग दौड़ में नादिर तेरी ख़ता नहीं
कभी मदारी कभी ये सरकस जीवन एक पहेली है
दुनियां है ये माया नगरी कह गए संत कबीर

By: नादिर हसनैन

खेल रहा है वक़्त कबड्डी खींच कर एक लकीर
Saturday, October 15, 2016
Topic(s) of this poem: sad,scared
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success