बस वोही जाने Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

बस वोही जाने

बस वोही जाने

चले है चरखा
पर आपने नहीं परखा
कई हो गए प्यारे
क्यों नहीं सोचते है सारे।

छोड़कर जाना
फिर वापस नहीं आना
फिर भी इतना झल्लाना
जिंदगी से भी नहीं मुस्कुराना
!
दो कोडी के इंसान
क्या है तेरी पहचान?
मिट जाना है तूने किसी पल
छूट जाएगा उस वक्त पसीना और मल।

मेरा मेरा क्या करता है?
जो करता वोही भुगतता है
यही सनातन सत्य है
और रहा हमेशा सातत्य है।

ये चक्र उसीका चलाया हुआ है
जिस से तू अनजान रहा है
किसको अपना कर बैठा है?
जिसने पैदा किया है उसीको ठेंगा दिखा रहा है?

ना कर इतनी नाफरमानी
छोड़ सारी बेईमानी
बही चलेगी नादानी
तू छोड़ चलेगा ये दुनिया फानी।

तू ही कहता है ना 'ये है मेरे भगवान् '
मेरे दाता ओर कदरदान
फिर क्यों तुला है उसकी पहचान बनाने?
उसकी दुनिया है 'बस वोही जाने '

बस वोही जाने
Monday, April 24, 2017
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
Close
Error Success