'सिर्फ दो रोटी की ख़ातिर '
वो भी दिनभर काम करती,
शिकायत किसी से भी नहीं करती ।।
सिर्फ दो रोटी की खातिर,
वो भी नौकरानी बनती।।
गिले- शिकवे तो दूर,
वो उफ्फ तक भी नहीं करती।।
सिर्फ दो रोटी की खातिर,
वो भी नौकरानी बनती।।
हैं, 'सबसे छोटी' फिर भी बड़प्पन दिखा जाती,
कोई जोर से भी बोले तो भी बस, धीरे से सिर झिड़क जाती।।
किसी से कोई गिला - शिकवा नहीं,
बस, अपने काम मे फिर से मशगूल हो जाती।।
बड़ो का आदर खूब अच्छी तरह कर जाती,
सिर्फ दो रोटी की खातिर,
वो भी नौकरानी बनती।।
कोई अगर पूछे कि कभी खेलने का मन करता हैं? ?
वो धीरे से मना कर जाती,
और चुप चाप अपने काम मे फिर से लग जाती
क्योंकि सिर्फ दो रोटी की खातिर,
वो भी नौकरानी बनती ।।
जाने कितने अरमाँ अपने दिल मे समेट कर,
वो भी दिन भर काम करती ।
सिर्फ दो रोटी की खातिर,
वो भी नौकरानी बनती।।
सुनो, हैं उसके पास भी दिल,
जो धड़कता भी हैं।।
पर क्या तुमने उसके,
धड़कते दिल की धड़कन सुनी,
नहीं सुनी, कर दिया तुमने उसे भी अनसुना।।
अपने 'मतलब' की खातिर तुम भी 'मतलबी' बन जाते,
बस मीठा बोलकर अपना काम पूरा जो करा जाते।।
शायद तुम इसे ही अपनी जीत मानते हो,
तभी तो उसके के अरमानो का गला यूँही दबा जाते हो ।।
दिखाते ऐसे हो, जैसे कुछ हुआ ना हो,
और वो भी ग़रीब चुपचाप तुम्हारा दिया काम पूरा कर जाती ।।
क्यूंकि सिर्फ दो रोटी की ख़ातिर,
वो भी नौकरानी बनती ।।
एक छोटा सा एहसास अपनी नन्ही कलम से(शरद भाटिया)
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Bahut sahi chitran kiya hai jindagi ko itne kareeb se. Soocha nahi tha iss pahlu ko deehoongi yaha par baat bahut sahi kahi hai aapne. Dhanyawad.