गुटरगूं एक ज़िन्दगी Poem by Anita Sharma

गुटरगूं एक ज़िन्दगी

Rating: 5.0

आज सुबह लौटते ही कुछ देर बालकनी में आयी हूँ, कुछ दिनों से कबूतरों ने एक घोंसला बनाया है गमलों के ठीक बीच और हाँ अंडे भी दिए हैं, रोज़ देखती हूँ कब उनके बच्चे बाहर निकलेंगे, मगर मेरी मातु ने बताया हठी होते हैं सारे पंछी कहते हैं बाइस दिन तक हठ करते हैं बिना कुछ खाये पिए, बैठे रहते हैं अपनी गर्मी से एक नए जीवन को अंडे में से बाहर निकालते हैं, अहो कितना सुंदर है यह सब, वैसे सच ही है जब देखो कबूतर हठे ही नहीं बैठे हैं जमकर जस के तस, आत्मा की गहराई से निकलती धीमी गुटरगूं एक ज़िन्दगी को नए आयाम की तरफ ले जा रही है, जीवन कितना सूंदर है, उनके घोंसले से उठती गंध भी मानो जीवनदायनी लगती है, एक गर्माहट है माँ के आँचल में, पता नहीं क्या नाम दूँ पता नहीं कैसे कहूं शब्दों में एहसास धीमे से कहीं गहरे में एक छटपटाहट और एक सुकून, हठी होने से याद आया मेरी मातुश्री भी कोई कम नहीं हैं हठी होने में हर दिन पूछना नहीं भूलती खाना खा किया कब खाओगी क्या बनाया, उन्हें लगता है मैं अभी भी छोटी बच्ची हूँ जैसे स्कूल जाने वाली, और फिर वही शादी कर लो अब्ब तोह सब कर लिया जो चाहती थी तुम, देखो दो जी हों तोह अच्छा है लड़ते ज़िन्दगी कटे तोह अच्छा है बिछड़ते रात ना आये, देखो कलियुग की उम्र छोटी और हाँ साथ तोह ज़रूरी है, आज सुन रही हूँ ध्यान से उनके एहसासों को समझ रही हूँ, माँ का दिल भी कितना पवित्र कितना ममता से भरा होता है, कितने बड़े हो जाओ उनको तोह बस बच्चे ही लगते हैं, उनकी आँखों में रह रह कर एक अनजानी प्यास है मुझे शादीशुदा देखने की, पता नहीं मुझे तोह इंटरेस्ट ही नहीं जगा इन सब बातों में, वैसे होती होगी इस रिश्ते की भी खूबसूरती, पता नहीं सोचने का वक़्त कहाँ है और आसपास के तथाकथित शादीशुदा जोड़ों को देख के तोह मन वैसे ही कुछ भर सा आता है सच कहूं तोह ग्लानि होती है डर लगता है इस शादी जैसे इंस्टीटूशन से, बाहर से किसी ने दरवाज़ा ज़ोर से खटखटाया है कौन होगा इस वक़्त सोने के वक़्त, खिड़की से देखती हूँ, अरे भौजाई कार को आज अंदर से साफ़ करवा लो फिर मत कहना किये नहीं पैसे पूरे लूँगा, एहहं भौजाई किसकी भौजाई, हमेशा की तरह मेरे नाक पर एक सिकुड़न सी आ गयी, मुझे भौजाई मत बोलना आज के बाद, उसने भी तुनक कर जवाब दिया नहीं कहेंगे हमरा का है मयडम कह लेंगे, ऐसा लग रहा था मानो इस एक शब्द ने मुझसे मेरा वजूद छीन लिया हो कहीं कहीं घुटन सी हो रही थी, मगर हाँ फिर सोचा मैंने भला शब्दों से वज़ूद का क्या लेना देना, शब्दों के जाल से बाहर निकल कर ज़िन्दगी को एहसास से जीना होगा, एक खुले आकाश में पंख फैला कर जैसे हवा छु रही हो, एहसास छु रहे हों, हाँ आज से तय है शब्दों से नहीं घबराऊँगी चाहे कोई भौजाई कहे या फिर आंटी, 😋😋😋😋😋

गुटरगूं एक ज़िन्दगी
Saturday, October 7, 2017
Topic(s) of this poem: beautiful,love and dreams
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
माँ के आँचल में
COMMENTS OF THE POEM
Kumarmani Mahakul 07 October 2017

This poem seems to very amazing story experienced and expressed from daily life. This is brilliantly penned story poem that brings emotion...10

1 0 Reply
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