अभी से बज़्म-ए-तरब ख़ामोश सी क्यों है
मौज़ून भी बहुत हैं और हैं मसाईल भी बहुत।
ऐ हुमनाशीनो दिल में यह कैसी खलिश है,
घिरे जो मौज-ए-हवादस तो हैं पाए ज़ख़्म बहुत।
मुत्तफिकर गर हो तुम लब बंद न बैठो कुछ तो कहो,
मसाइल जो बहुत हैं तो हैं हल करने के इमकानात बहुत।
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