जहां से तय है गिर के मरुँगा लेकिन Poem by KAUSHAL ASTHANA

जहां से तय है गिर के मरुँगा लेकिन

जहां से तय है गिर के मरुँगा लेकिन
उन्ही दुर्गम पहाड़ों से मै फिसलता हूँ |

रिश्ते नातों की हक़ीक़त जानता मगर
उन पर मिटने को फिर भी मैं मचलता हूँ |

हजार ख्वाहिशे फिहरिस्त में प्रतीक्षित है
पर एक नयी चाह रोज़ खड़ी करता हूँ |

जानता हूँ गुस्ताखियों का अंजाम बुरा
कदम रुकते न उन्हें बार-बार करता हूँ |

हसीन सपने छोड़ चुके नीद में आना
उजाले में सदा उनका ध्यान करता हूँ |

बिंदास मन परवाज भर आकाश छूने को
कौशल क्या करे कुछ करने से डरता हूँ |

.........................कौशल अस्थाना

COMMENTS OF THE POEM
Geetha Jayakumar 28 January 2014

Sab kuch tay hai hakikath jantha hoon hazaroon khwaishoan eaisy Bure anjam ke khabar hai mujhe per...........Phir bhi dil say majboor hoon! ! ! Beautiful flow of words....Loved reading it.

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