1.
सच यदि हर किरदार बोलता,
झूठ नहीं अखबार बोलता।
मिल जाये सम्मान अगर तो,
सत्ता की जयकार बोलता।
रिश्ते-नाते सब बेमानी,
सिर चढ़कर बाजार बोलता।
बस, इतना कानून यहाँ है,
जितना थानेदार बोलता।
साँठ-गाँठ करता चोरों से,
खुद को पहरेदार बोलता।
अपना उल्लू सीधा करता,
बातें लच्छेदार बोलता।
2.
खुद से जब परिचय होता है,
जीवन यह सुखमय होता है।
जितना कहती है जिह्वा, क्या-
उतना ही आशय होता है?
ले रहा शपथ सच कहने की,
पर, उस पर संशय होता है।
जीवन हो एक कैलेण्डर सा,
ऐसा क्या कुछ तय होता है?
पल में क्या कब घट जायेगा?
अनहोनी से भय होता है।
आना-जाना इस दुनिया में,
होता है, लयमय होता है।
3.
कलम उठती जो लिखने को तो उसका नाम लिखता था,
सफ़ा पर डायरी के रोज सुबहो शाम लिखता था।
ग़ज़ल के शेरों में यादों को कुछ ऐसे पिरोया था,
कि कहने को ग़ज़ल तो थी मगर पैग़ाम लिखता था।
नहीं की कोशिशें मैंने ये कहना झूठ ही होगा,
संदेशे भेजता तो था मगर बेनाम लिखता था।
उसी के जिक्र से तो शायरी थी खास बन जाती,
मगर ख़ुद को तो बंदा वो ग़ज़लगो आम लिखता था।
फसाने सैकड़ों थे पर उसी का जिक्र था सबमें,
उसी से हर समय आग़ाज औ अंजाम लिखता था।
नहीं यीशू भी था वो जो कि सूली पे लटक जाता,
उठाये अपने सर ऊपर सभी इल्जाम लिखता था।
बसर करना बहुत मुश्किल है उससे दूर रह करके,
मैं गाता हूँ रूबाई वो जिसे खैय्याम लिखता था।
4.
धरती से हूँ इससे ही सदा हमको जुड़ करके रहना है,
सहती है भार जहाँ का वो हमको भी तो कुछ सहना है।
हसरत है नहीं हमको तो यारो आसमान को छूने की,
हमको तो पहाड़ो से रिस-रिस कर धरती ऊपर झरना है।
झर-झर के चाँदनी अम्बर से इस धरती पर छा जाती है,
आँखों की राह से उसी तरह हमको भी दिल में उतरना है।
चैराहों पर तो धूप, हवा, पानी बिकने को आये अब,
तज कर इस शहरी दुनिया को अपनी बस्ती में बसना है।
आ गये दूर तक, और दूर तक अब भी हमको जाना है,
जीवन का मतलब ही यारो चलना है केवल चलना है।
(साभार: मुक्तांचल, अप्रैल-जून 2017)
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