ग़ज़लें
डॉ. वेद मित्र शुक्ल
राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
नई दिल्ली - 110015
1
मन है भीग रहा बारिश में,
होकर के तनहा बारिश में।
पावस रितु की जलन न पूछो,
क्या-क्या नहीं सहा बारिश में।
यों हैं मेघ छुयें धरती ने,
हर इक बूँद गहा बारिश में।
सावन की हरियाली छायी,
मौसम खिला नहा बारिश में।
कागज की कश्ती सा होकर,
कितनी बार बहा बारिश में।
'आओ, चलो घूम के आयें, '
उसने मुझे कहा बारिश में।
उसका साथ मिला कुछ ऐसे,
तन-मन आज दहा बारिश में।
2.
सावन तो शरमाता है,
भादो झर-झर आता है।
बादल है भोला-भाला,
परबत से टकराता है।
पावस रितु में सूरज भी-
सातों रंग दिखाता है।
मेघों से सोना बरसे,
पात-पात इतराता है।
मौसम है बारिश का, पर,
भीतर खूब जलाता है।
(साभार: शब्दिता, जन.-जून 2017)
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