पाँच ग़ज़लें
डॉ. वेद मित्र शुक्ल
अंग्रेजी विभाग, राजधानी कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110015
मोबः 09599798727
1.
तकलीफें ही लेकर आये,
जब भी हम उसके दर आये।
उसकी आँखों में जो आँसू,
शायद कभी न बाहर आये।।
मन तो उड़ते पंछी सा था,
पर, किस्मत में पिंजर आये।
उसने जब आवाज उठाई,
बदले में लो पत्थर आये।
ये तो ऐसा कतरा यारो,
जिससे मिलने सागर आये।
बैठे-बैठे ऊब रहे थे,
बाहर गये घूमकर आये।
कलियुग में बस रामकथा ही,
शबरी के घर रघुवर आये।
2.
मल्हार राग क्यों गाये ना,
सावन के बादल छाये ना।
अफ़वाहों से कैसे उबरें,
कोई आये समझाये ना।
अब कुरूक्षेत्र में खड़े हुये,
मोहन मुरली बज पाये ना।
बस, गोलमाल करते-करते,
घर-बार कहीं खो जाये ना।
भूलें हैं सुर-लय-ताल सभी,
इस मन को कुछ भी भाये ना।
अर्जुन ही हैं हर ओर खड़े,
कोई गीता बतलाये ना।
3.
सबकी कथा-कहानी है,
किसने कब समझी-जानी है।
आँखों में है तो मोती है,
छलके जो तो वह पानी है।
कब तक सहती ये धरती भी,
सबने ही की मनमानी है।
ठोकर जब खायी उसने तो,
खुद की कीमत पहचानी है।
सारे जग को ही जीतेगा,
जिसकी भी मीठी बानी है।
4.
कैसे उबरें डर से यारो,
रिश्ते हुए भँवर से यारो।
कब लौटेंगे कौन बताये,
निकल गये हैं घर से यारो।
जैसे भी खुश उनको रखना,
दुआ करें ईश्वर से यारो।
ये छल करके अपनों को ही,
रोये हैं अन्दर से यारो।
दर खुलते ही उड़ेंगे देखो,
पंछी इस पिंजर से यारो।
5.
झूठे हुए हैं रिश्ते परिवार दोस्तो,
भाने लगा है अब तो बाजार दोस्तो।
दीवार लगी उठने आँगन में आजकल,
हिस्सों में बँट रहा है संसार दोस्तो।
रूठा कभी-कभी तो था माँ ने मनाया,
करता है कौन अब तो मनुहार दोस्तो।
रहता न कोई संग में यों दूरियां बढ़ीं,
जाने कहाँ गया है खो प्यार दोस्तो।
पाने को मंजिलों को ऐसा नशा चढ़ा,
आये हैं टूटने को घर-बार दोस्तो।
(साभार: साहित्य यात्रा, अप्रैल-जून,2017)
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