A-068. मेरी पड़ोसन Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-068. मेरी पड़ोसन

मेरी पड़ोसन 28.4.16—10.10 PM

आज मेरी पड़ोसन बदनाम हो गई
बचने की कोशिश नाकाम हो गई
बहुत कोशिश करी जान छुड़ाने की
जिद कर बैठी आज साथ जाने की

भागा भगाया दूर निकल आया
उसको भी अपने करीब ही पाया
उसको भी मैंने बहुत समझाया
उसकी समझ में कुछ नहीं आया

आज तो मेरे वो पीछे ही पड़ गई
साथ साथ चलती पूरी अकड़ गई
मन भी बना लिया दूर ही भगाऊंगा
फिर कभी मैं लौट कर नहीं आयूंगा

वो फिर भी मेरे साथ हो लेती हैं
छिपती छिपाती मुँह मोड़ लेती है
जवाब भी जनाब मुहँ तोड़ देती है
पता नहीं किस बाप की बेटी है

मैं भी इसको भगाकर ही दिखाऊंगा
दिमाग इसका भी ठिकाने लगाउँगा
बर्दाश्त की भी आखिर हद होती है
अक्ल बेवकूफों की मंद ही होती है

गुस्से से भरा मैं घर को हो लिया
तकिया सिरहाने सर रख सो लिया
बत्ती बुझा देखा वो गायब हो गयी
देखा कहीं साथ ही तो नहीं सो गयी

यहाँ तो कोई नहीं मेरी ही परछाई है
डर लगता उसे अँधेरे से घबराई है
अंदर आने से वो बहुत कतराई है
उसकी बात अब समझ आयी है

' पाली' यह तो मेरी ही परछाई है
…………यह तो मेरी ही परछाई है

Poet; Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

A-068. मेरी पड़ोसन
Thursday, April 28, 2016
Topic(s) of this poem: humorous
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