A-073. तुम कहते हो Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-073. तुम कहते हो

Rating: 5.0

तुम कहते हो 8.4.16—4.54 PM

तुम कहते हो तुम प्यार करते हो
इसीलिए मेरा इंतज़ार करते हो
जब भी मैं तुम्हारे पास आती हूँ
पता है कैसा व्यवहार करते हो

सपनों का चीर हरन करते हो
मुझको अपने वश में करते हो
जो चाहते हो वही बन जाऊँ मैं
ऐसा सौदा बार बार करते हो

दिल के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं
तुम पूरा पूरा अपमान करते हो
हकूमत भी तुम्हारी ही चलती है
कहते हो तुम सम्मान करते हो

मेरे दर्द को समझते भी नहीं हो
मेरे न आने पर सवाल करते हो
नहीं रहना मुझे इन चेहरों के संग
जब देखो तभी बवाल करते हो

इस खौफ में भला मैं कैसे रहूँ
तुमको भी समझ नहीं आता है
अपने दिल की बात कैसे कहूँ
इस जुदाई का गम मैं कैसे सहूँ

क्यूँ मैं इतनी दूर निकल आई हूँ
जवाब खुद भी नहीं ढूँढ पाई हूँ
पीछे देखकर बेचैनी होती है मुझे
क्या बचा है समझ नहीं पाई हूँ

मेरा अधूरापन मुझे ही खा रहा है
मेरा मन आज बहुत पछता रहा है
क्यों इतना भरोसा कर लिया मैंने
मेरा भरोसा मुझे ही सता रहा है

आपका प्यार दो पल की घड़ी है
कोई जीवित भी है कि मरी पड़ी है
आप को बस सिर्फ अपनी पड़ी है
क्या इसी को प्यार कहते हो ……क्या इसी को प्यार कहते हो …….

Poet: Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

A-073. तुम कहते हो
Sunday, May 22, 2016
Topic(s) of this poem: relationship
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 22 May 2016

प्यार में उलाहने मिलना या देना भी प्यार का ही एक रूप है. अपने इस भाव को खूबसूरती के साथ रेखांकित किया है. धन्यवाद. कविता का एक उद्धरण: आपका प्यार दो पल की घड़ी है कोई जीवित भी है कि मरी पड़ी है आप को बस सिर्फ अपनी पड़ी है क्या इसी को प्यार कहते हो ……

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