A-143. हर शाख के पत्ते Poem by Amrit Pal Singh Gogia

A-143. हर शाख के पत्ते

हर शाख के पत्ते 27.5.16- 7.38 AM


हर शाख के पत्ते मुस्करा रहे थे
लहलहाते शोर मचाते गा रहे थे
नयी ऋतु आ गयी है बता रहे थे
हर पल का नृत्य गुनगुना रहे थे

न कोई गम था कि क्या छूट गया
न कोई गम था कि क्या टूट गया
न कोई रोष था तूफ़ान के आने का
न रोष था उनको पटक गिराने का

आज भी कुछ बृक्ष हैं जो बुझे पड़े हैं
आज भी पुरानी खलों से जुड़े पड़े हैं
आज भी सूखी टहनी पकड़ बैठे हैं
नहीं छोड़ते खाड़कू से अकड़ बैठे हैं

सालों साल लग गए संभल बैठे हैं
कुछ छूट न जाये सफल बन बैठे हैं
बोझ कन्धों पर इतना डाल लिया है
कंधे भी उनके जमीं तक झुके बैठे हैं

गर्दन भी जमीं में घुसी जा रही है
बोझिल आँखें सिकुड़ी जा रही हैं
आस पास मेढक भी टर्राने लगे हैं
मौसम बदल गया बताने लगे हैं

नयी जिंदगी इशारे भी दिखा रही है
मुझे फिर भी समझ नहीं आ रही है
वट बृक्ष की जड़ें जितनी मौजूद हैं
पकड़ मेरी भी इतनी ही मजबूत है

कहीं न कहीं से निकल ही आती है
और फिर लोगों को यह बताती है
देखो मैं मौजूद हूँ हर हालात में हूँ
बिना मिले हुए हर मुलाकात में हूँ

सब जानते हुए कि एक जज्बात है
मुश्किल यह कि जानता हर बात है
नया करने को 'पाली' छोड़ना होगा
नयी डगर को रास्ता मोड़ना होगा …..
नयी डगर को रास्ता मोड़ना होगा …..

Poet: Amrit Pal Singh Gogia 'Pali'

A-143. हर शाख के पत्ते
Friday, May 27, 2016
Topic(s) of this poem: motivational
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