बसेरा ढूँढ लो Basera Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

बसेरा ढूँढ लो Basera

Rating: 5.0

बसेरा ढूँढ लो

Saturday, April 21,2018
7: 36 AM


में तो अकेली ही थी
कोई भी सहेली नहीं थी
तुम आए मेरी जिंदगी में
मैंने अनुभव किया जीवन में।

क्या बहार थी?
क्या संदेशा लाई थी?
मेतो मन्त्रमुघ हो गयी
अपने आप में सुदबुध से खो गयी!

मैने चाहा में सरपट दोडी आऊं
आप में समा जाऊं
लुटा दु सर्वस्व और कर दूँ जान न्योछावर
क्यों की तुम ही तो थे मेरे वर!

पर समय ने करवट ली
आपने हम से दिल्लगी कर ली
ऐसा मोहभंग कर लिया की हम रो पड़े
अपने आप से खुद लड़ पड़े।

क्या प्रेम करना गुनाह है?
क्या यही वजह है?
हम सेखफ़गी मोल लेने की?
किसी के दिल को ठेस पहुंचाने की?

अरे कभी पूछ तो लेते?
और कह भी देते?
आप दुसरा बसेरा ढूँढ लो!
बस सीधे मुंह चलते बनो

बसेरा ढूँढ लो Basera
Friday, April 20, 2018
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 21 April 2018

S.r. Chandrslekha Bahut sunder. Beautiful write poet. 1 Manage Like · Reply · 1m

0 0 Reply
Mehta Hasmukh Amathalal 20 April 2018

अरे कभी पूछ तो लेते? और कह भी देते? आप दुसरा बसेरा ढूँढ लो! बस सीधे मुंह चलते बनो

0 0 Reply
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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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