गया प्रसाद आनन्द की कविता 'जिम्मेदारियों का बोझ' Poem by Gaya Prasad Anand

गया प्रसाद आनन्द की कविता 'जिम्मेदारियों का बोझ'

सोचा था.......
झोला उठाकर चल दूँ
पर ये फकीरी मुझॆ रास नहीं आई

एक तरफ कुँआ
तो दूसरी तरफ खाईं

कहीं कामचोर दुनिया
तो कहीं मेहनतकश मुसाफ़िर

जिम्मेदारियों का बोझ..........
.......... कहीं हिलने नहीं देता

फिर सोचा....
समाज से मुँह मोड़ लूँ
या अपनों से नाता तोड़ लूँ

सपनों के संसार सजाऊँ
खुशियों से दामन भर लूँ

उल्टी सीधी राह चलूँ मैं
या फिर अपना फर्ज निभाऊं

कंटक पथ ये निर्विरोध.....
.......हमें चलने नहीं देता।

क्या......
चिकनी चुपड़ी बातें करके
लोगों का मन बहलाऊ

सबके हाँ में हाँ मिलाऊँ
या फिर मैं पागल बन जाऊँ

स्वाभिमान की लड़ूँ लड़ाई
या फिर अपना जमीर गिराऊँ

यह द्वन्द्व कभी आजादी से.........
..... हमें बढ़ने नहीं देता।

इन....
झूठ फरेबी मक्कारों का
बोलो कैसे साथ निभाऊं

अपराधों से लड़ने खातिर
या फिर अपराधी बन जाऊं

चुपचाप अन्याय सहू क्या
या अब मैं हथियार उठाऊँ

संविधान ही गुनाह कोई..........
..... हमें करने नहीं देता।

गया प्रसाद आनन्द
मोo9919060170

गया प्रसाद आनन्द की कविता 'जिम्मेदारियों का बोझ'
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