नारी संवेदना Poem by Gaya Prasad Anand

नारी संवेदना

हम हर वर्ष मनाते हैं होली
दहन करते हैं होलिका
मनाते हैं खुशियाँ
एक महिला को जिन्दा जलाकर
एक धर्म के रूप में
एक त्यौहार के रूप में
क्या महिलाएं सदा से ही
ताड़ना की अधिकारी रही
इस पुरुष प्रधान समाज में।
कभी होलिकादहन
कभी सीता का परित्याग
कभी सती प्रथा
अब दहेज प्रथा
आखिर क्यों?

इधर हम
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
का नारा देते हैं
महिला दिवस मनाते हैं
उधर हम
एक महिला को
जिंदा जलाते हैं
होलिकादहन करते हैं
क्यों दोहराते हैं
ऐसी परम्परा
क्या यही हमारे संस्कार हैं
वो भी रही होगी
किसी की बहन,
किसी की बेटी
तो फिर येसा क्यों
आखिर हम क्यों करते हैं
महिलाओं का शोषण
एक धर्म के रूप में
एक परम्परा के रूप में

हम लगाते रंग
लगाते हैं अबीर
मानते हैं ख़ुद को वीर
उछालते हैं कीचड़
बहन बेटियों की आबरू पर
करते हैं अपना मुंह काला
क्या यही
रंगों का त्योहार है
जिसमें हम
पार कर जाते हैं
मानवता की सारी हदें
बन जाते हैं हैवान
कहते हैं बुरा न मानो
होली है।
आखिर कब सुधरेंगे हम
कब सुधरेगा समाज?

स्वरचित
गया प्रसाद आनन्द
शिक्षक चित्रकार कवि
9919060170

नारी संवेदना
Monday, March 24, 2025
Topic(s) of this poem: woman
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