'अन्नदाता ' किसान Gaya Prasad Anand Poem by Gaya Prasad Anand

'अन्नदाता ' किसान Gaya Prasad Anand

मैं किसान हूं, अन्नदाता हूं

ताजे फल व हरी सब्जियां उगाता हूं
खुद रुखा सुखा खाता हूं साहब!
बड़े बड़े सेठ साहूकारों के गोदाम सजाता हूँ।

मैं किसान हूं अन्नदाता हूं

आपकी नजरों में, क्या औकात है मेरी
गरीब बेबस मजदूर नजर आता हूं
अपने हक के लिए, जब भी उठाता हूं आवाज।
कभी लाठी कभी गाली, कभी गोली खाता हूं।

मैं किसान हूं अन्नदाता हूं।

आपके जिंदगी में मिठास, मेरे बदौलत है,
धान, गेंहू, गन्ना, आलू प्याज़ उगाता हूँ।
दूध खोया पनीर खाकर बनाते हो सेहत।
जानवरों की सेवा में, मैं भी जानवर बन जाता हूं।

मैं किसान हूँ अन्नदाताहूँ।

कभी बाढ़ का पानी, तो कभी सुखी बंजर भूमि।
देख चट्टानों की तरह, पथरा जाती हैं आँखें ।
बिन बरसात के ही, इन आँखों से बरसता है पानी।
प्रकृति के आगे लाचार, बेबस हो जाता हूँ।

मैं किसान हूं अन्नदाता हूं।

- गयाप्रसादआनन्द 'आनन्द गोण्डवी'
शिक्षक, चित्रकार एवं कवि
मो

'अन्नदाता ' किसान Gaya Prasad Anand
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success