दूध के दाँत Poem by Geet Chaturvedi

दूध के दाँत

Rating: 5.0

देह का कपड़ा
देह की गरमी से
देह पर ही सूखता है
- कृष्णनाथ

मैंने जिन-जिन जगहों पे गाड़े थे अपने दूध के दांत
वहां अब बड़े-खड़े पेड़ लहलहाते हैं

दूध का सफ़ेद
तनों के कत्थई और पत्तों के हरे में
लौटता है

जैसे लौटकर आता है कर्मा
जैसे लौटकर आता है प्रेम
जैसे विस्मृति में भी लौटकर आती है
कहीं सुनी गई कोई धुन
बचपन की मासूमियत बुढ़ापे के
सन्निपात में लौटकर आती है

भीतर किसी खोह में छुपी रहती है
तमाम मौन के बाद भी
लौट आने को तत्पर रहती है हिंसा

लोगों का मन खोलकर देखने की सुविधा मिले
तो हर कोई विश्वासघाती निकले
सच तो यह है
कि अनुवाद में वफ़ादारी कहीं आसान है
किसी गूढ़ार्थ के अनुवाद में बेवफ़ाई हो जाए
तो नकचढ़ी कविता नाता नहीं तोड़ लेती

मेरे भीतर पुरखों जैसी शांति है
समकालीनों जैसा भय
लताओं की तरह चढ़ता है अफ़सोस मेरे बदन पर
अधपके अमरूद पेड़ से झरते हैं

मैं जो लिखता हूँ
वह एक बच्चे की अंजुलियों से रिसता हुआ पानी है

COMMENTS OF THE POEM
Subhas Chandra Chakra 11 April 2018

This one is a great modern poem deer Geet ji. Please put the poem simultaneously in English script too. You will get a larger forum, for there are many who understand Hindi but don't know Devanagari. You write so well in Hindi. I would love to translate a few of your poems into English. Thanks for the sharing. 10++++++++++

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Geet Chaturvedi

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Mumbai / India
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