हमारी मज़बूरी Hamari Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

हमारी मज़बूरी Hamari

हमारी मज़बूरी

दूर रहना थी हमारी मज़बूरी
जैसे मृगनी थी कस्तूरी
खुद की खुश्बू से परेशान
कैसे बचाती अपनी शान? हमारी मज़बूरी

नहीं था किसी से गीला
बस अवसर ही ऐसे आन मिला
हुस्न और दिखावा जैसे हुआ दुश्मन
कैसे चाहुँ में शांति ओर अमन? हमारी मज़बूरी

सोच सोच कर बुरा होता था हाल
मन के होते थे बुरे हाल
बस डर था की दरार ना पड जाए
बिना सोचे समझे किसी मुसीबत में ना पड जाए। हमारी मज़बूरी

दोस्ती की थी हमको कदर
मन में भरा था खोने का डर
कोसते थे अपने आप को
क्योंकि आन पड़ी थी जी जान को। हमारी मज़बूरी

दिल है कि मानता ही नहीं
आँखे भी चुराता नहीं
मस्त रहता है अपने ही आगोश में
डर जाता है आहत होते ही खरगोश से। हमारी मज़बूरी

हमारी मज़बूरी Hamari
Sunday, September 11, 2016
Topic(s) of this poem: poem
COMMENTS OF THE POEM
Mehta Hasmukh Amathalal 11 September 2016

welcome mithu saha Unlike · Reply · 1 · Just now

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Mehta Hasmukh Amathalal 11 September 2016

दिल है कि मानता ही नहीं आँखे भी चुराता नहीं मस्त रहता है अपने ही आगोश में डर जाता है आहत होते ही खरगोश से। हमारी मज़बूरी

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Mehta Hasmukh Amathalal 11 September 2016

दिल है कि मानता ही नहीं आँखे भी चुराता नहीं मस्त रहता है अपने ही आगोश में डर जाता है आहत होते ही खरगोश से। हमारी मज़बूरी

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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