'ख़्वाब शीशे के जैसे मेरे, टूटकर बिखर जाते हैं|समेटने लगूँ जो हाँथों से, तो हाँथों में चुभ जाते है|देनी थीं खुशियाँ जिन्हें, वो आँसु दे जाते हैं|तू ही बता मेरे खुदा, क्यूँ वो ऐसा कर जाते हैं|सितारों से चमकते सपनें, न अब और सजाऊँगा|हैं मेरे हाँथ कोमल बड़े, न इन्हें और रुलाऊंगा|'- - अभिनव राज- -
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जब हमारे ख्व़ाब भी प्रसन्नता की जगह विषाद लाते हैं, तब ऐसे प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक हैं. पूरी स्थिति का आपने बहुत संतुलित चित्रण किया है. धन्यवाद, अभिनव जी. आपकी कविता का एक अंश उदाहरणस्वरूप: देनी थीं खुशियाँ जिन्हें, वो आँसु दे जाते हैं|तू ही बता मेरे खुदा, क्यूँ वो ऐसा कर जाते हैं|
Bas aaplogon ke saath ar margdarshan ki zaroorat h.
Thanks...Sir