स्वतंत्र Poem by lucy Bisht

स्वतंत्र

आज़ादी को चला रहे
नया रूप है बना रहे
कट्टरता से घिरे हुए
लकीरों से बटे हुए
बाध्य सोच से अपनी हैं
नहीं किसी कि सुनते हैं
धर्म सीमा में फसे हुए
अहंकार में धसे हुए
भाव में अभाव लिए
ज़ुबां में कटार लिए
चलते चलाते जाते हैं
कुछ देख न सुन पाते हैं
स्वयं को स्वतंत्र बताते हैं!

सम्मान को झोंका हैं
एकता को खोया है
प्रकृति को दुखी किया
सागर को ख़ून, आंसू, से भरा
एक आसमां, एक ज़मीं को
काल कोठरी में ढका
स्वर्णिम पंछी को उसमें रखा।
अंधविश्वास के पुजारी हैं
अपनी हठ से हारे हैं
कुछ देख न सुन पाते हैं
स्वयं को स्वतंत्र बताते हैं!

COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success