रहेम निगाहें Rahem Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

रहेम निगाहें Rahem

Rating: 3.8

रहेम निगाहें
Sunday, June 10,2018
9: 20 PM

मुझे अपने पर गुरुर था
अपने काम पर मगरूर था
अपने वचन पर कायम रहता था
जितना बन सके, मदद करता रहता था।

पर ये क्या हो गया?
काम ना करने वाले मैदान मार गया
वो अब आगे बढ़ गए
में स्पर्धा से बाहर हो गया।

वाह रे दुनिया! तेरा भी कमाल है
जो चोर है वो सब मालामाल है
बाकी सब को खाने के लाले है
चेहरे पे मायूसी, मुंह पर लगे ताले है

क्या आदमी है? इसके जैसा शायद ही मिलेगा
भगवान उसे जरूर फल देगा
मेरे दिल को यह सुनकर शुकन मिलता था
चेरे पर चमक जरूर थी पर दिल रोता था।

बच्चे को पढाने के लिए फ़ीस नहीं
बीवी को नयी साडी के लिए पैसा नहीं
पांव में फटी सी गरीब की जुती
गरीब की है किसी के कान में सुनी नहीं जाती।

में सोचने पर मजबूर था
आगे भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था
घर का राशन भी ख़त्म होने जा रहा था
पत्नी की दवाई का भी इंतजाम करना था

मुझे ईमानदारी ने सोचने पर मजबूर किया
क्या मैंने मेरी ईमानदारी का इनाम पा लिया?
एक बात तो जरूर थी, सच की राह कठिन जरूर थी
हम भले ही गरीबाई मे रहे, कुदरत की रहेम निगाहें जरूर हमपर थी।

हसमुख अमथालाल मेहता

रहेम निगाहें Rahem
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मुझे ईमानदारी ने सोचने पर मजबूर किया क्या मैंने मेरी ईमानदारी का इनाम पा लिया? एक बात तो जरूर थी, सच की राह कठिन जरूर थी हम भले ही गरीबाई मे रहे, कुदरत की रहेम निगाहें जरूर हमपर थी। हसमुख अमथालाल मेहता

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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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