ओ ईश्वर मुझे भीजरा बता
किन रंगों से बनाई ये रंगीन,
तरह तरह के रंगों वाली दुनिया तुमने
किसी में भरा तुमने भोलेपन का रंग तो कहीं
भर दिए आंसुओं के रंग
कही मुश्किलों की चादर में लिपटे सफ़ेद रंग
तो कहीं भर दिए हैं तूनेखुशियों के लाल रंग
क्यों दिया किसी- किसी को भोलेपनका रंग
कहीं मुखौटो की आड़ में देखे हमने हजारो रंग
जिसे दिया ये रंग तुमने, वो
इस बेरंगी दुनिया के बाज़ार में मुर्ख कहलाता रहा
पीठ पीछे हसते लोग उसके, सामने वो वाह वाही पाता रहा
छल, कपटसे भरी vइस दुनिया को देकर सीधे,
और, भोलेपन का रंग,
नेक लोगो की हंसी तूउड़वाता रहा
फिर बनाये तूमने रिश्तो केरंग
जिससे आज का इंसा अब घबरा रहा.
चली गई है ओजस्विता रिश्तों की और न रही है,
रिश्तों में गरिमा अब कोई.
स्वार्थ के ज़हर से अब वो रंग फीका सा लगा
फिर बना दिए दर्द के रंग जिसमे तेरा ये इंसा
हर पल छटपटाता रहा
हो गए अपने भी परायों के..., इंसा के jahan सेजीने का मजा जाता रहा...
..कहीं मुखौटो की आड़ में देखे हमनेहजारो रंग
एक अर्ज. मेरी भी सुन लो,
बनाओ अगली दुनिया जब
बनाना तो सिर्फ पशु पंखीबनाना mujhe
पर भूल से इंसान naa बनाना तुम..
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इस खूबसूरत कविता में रंगों और मुखौटों के माध्यम से आपने आज के समाज में स्वार्थ व इंसानी रिश्तों की कड़वी सच्चाई को रेखांकित किया है तथा सब प्राणियों में मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ होने की अवधारणा पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. यह हमें बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है. धन्यवाद, बहन पुष्पा जी.
Abhar sah hardik dhanyvad bhai..is kavita par bhi aapke etane achhe vicharon ke liye.