मन के तार फिर एक बार
जुडते, करते पैदा झंकार
मानव के इस राग रूप में
भर देते सुर की टंकार
कहीं किसी के लिये कभी
दिल में है मची बसी हुंकार
किसका सपना था अपना सा
झंकृत करता वीणा के तार
फिर चलो कहीं हम आज चलें
थोडी खुशियां ले कर उधार
क्या करूं कहूं क्या सोच रहा
जीवन है फंसा बीच मझधार
आओ मेरे प्राण प्रिये
कुछ तुम्ही करो मेरा उद्धार ।
अभय भारती(य) ,12 दिसंबर 2008 11.28 (रात्रि प्रहर)
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