वो अंजानी लड़की
कलियों सी खिल जाती, वो इठलाती थी
अंजानी थी, फिर भी मिलने आती थी।
रुन झुन करती, बजती जब पायल उसकी
मधु सी मीठी, कानों में घुल जाती थी।
घर का द्वार खुला रह जाता, जब जब भी
उड़न परी सी, वह घर में घुस जाती थी।
इत्र न फूल लगाती, पर खुशबू उसकी
मेरे घर की, मंद हवा महकाती थी।
बाँहों में बंधी, आलिंगन पाश मुझे
रेशम ढेरी का, एहसास कराती थी।
कह जाती दिल की, पर जब तुतलाती थी
समझ न आती, फिर भी अतिशः भाती थी।
कुछ काल अभी संग, व्यतीत न कर पाता
उसकी माँ आ, बांह पकड़ ले जाती थी।
मिल पाता ह्रदय को, आमोद जब तलक
गावों की बिजली सी, गुल हो जाती थी।
उससे मिलना, छुप भी पाता तो, कैसे
मेरे वस्त्रों में, दाग लगा जाती थी।
- - एस० डी० तिवारी
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Great job indeed Tiwari Sir. Hope to read more.