बहन-भाई की प्रीति है,
यह चली आ रही रीति है;
है अनुरागा यों सलोना बंधन,
लो पधारा पर्व ‘रक्षाबंधन'।
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अब की बार होली में!
उल्हासपूर्ण सतरंग सहित,
भिगो देंगे सभी को रोली में,
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एक पगली अनजानी-सी!
कॉलेज का वो पहला दिन, एक पल को आँखें चार हुईं,
थे अनजाने एक-दूजे से वो, फिर अनचाही तक्रार हुई,
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कुदरत का भी अजब दस्तूर है!
जिससे तमन्ना थी बेइंतेहा, रूबरू होने की,
वही सनम हमसे खफा और बहुत दूर है,
मिन्नतें की खुदा से जिसे पाने की, अपनी शरीक-ए-हयात बनाने की,
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ऐ मेरी हुस्न-ए-मल्लिका, मुझे तू उल्फ़त का जाम दे दे,
हसीन तो मिलते हैं कई राह-ए-ज़िंदगी में, मगर
तुझे ही चाहूँ उम्रभर मैं, ऐसा मुझे कोई पैगाम दे दे! !
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ऐ मालिक, सिर्फ इतना-सा मुझपर तू करम दे,
मुझे सनम से प्यारा मेरा वतन कर दे! !
कर दूँ निछावर तन-मन-धन सब अपना,
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काश इस कदर न आँखें मिलाई होती मुझसे एक रोज,
तो तेरे पलभर के दीदार को तरसना छोड़ देता ये दिल!
काश न तेरे प्यार की खुशबू आई होती मेरी ओर,
तो खिली हुई बगिया-सा महकना छोड़ देता ये दिल! !
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घर-घर में जिसे मिला मान,
करती सबका है कल्याण;
जिसके बल पर चले घर-बार,
शिक्षा बड़ी उदार।
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छू लूँ गगन बिना लिए पर,
किसी का न हो मुझको डर;
मंजिल छोडू न भी मरकर,
है यही अभिलाष मेरा ।
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हुआ था एक बुद्धि-सम्राट,
कथा है जिसकी बहुत विराट;
कभी न भाया जिसे आराम,
उस कलाम को मेरा सलाम।
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