वासना की उपासना Poem by Manish Solanki

वासना की उपासना

करूँ वासना की उपासना,
और करूँ उसका सम्मान;
रहूँ मैं उसकी छात्र-छाया में,
हर पल उसके भक्त समान;
बनूँ मैं मतबाला सा भँवरा,
वासना का गुणगान करूँ;
चढ़ कलियों पर पुष्प बना दूँ,
सबका मैं कल्याण करूँ;
रैना गुजरे अर्ध खिले पुष्पों के
छोटे से मुख में;
पवन के झोंकों में पंखुड़ियाँ
पकड़े हम सहवास करें;
अधरों का स्पर्श परागों में
रस का संचार करें;
खिल जाये पंखुरियां
उसके यौवन को साकार करें;
एक ही बार नहीं,
ये अवसर अब बारम्बार मिले,
भिन्न-भिन्न रंग-रूप से शोभित
कलियों का संसार मिले;
कभी न पतझड़ का मौसम हो,
नित्य खिले नूतन कलियाँ;
हर प्रभात एक नया वसंत हो
और नई हो रंगरलियाँ;
एक अकेला भँवरा मैं ही,
सारे बाग-बगीचे में;
पान करूँ सब कलियों का रस,
हो ऊपर या नीचे में;
वासना हो इतनी प्रवल कि
कोई कलियाँ रुष्ट न हो;
छुधा कभी न पूरी होए,
रूह कभी संतुष्ट न हो;
हर पल ये ही धुन हो मेरी,
करूँ मैं सब का ही उद्धार;
कभी न कण भर खाली होए,
ऊर्जस्वित ये वीर्य अपार।

वासना की उपासना
Saturday, July 2, 2016
Topic(s) of this poem: love
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