ये जीवन जो हम जी रहे हैं ~
क्या ये भँवर तो नहीं?
दे रही है हिचकोले पानी में
धारा पर भ्रमण करवा रही है
बैठ जाऊं अगर तो घूमती नज़र आती है
घूमने जो लगूँ तो ठहरी सी लगी है I
कई रंगों में खेलती है
हज़ारों रूप में नज़र आती है
मन में आशा भर्ती है
बन के पंछी, पंख फैलाकर उड़ जाती है I
बहती है नदी बन के कभी
तो समंदर बन ठहर भी जाती है
लहर संग बहा ले जाती है कभी
कभी गहरायिओं में डुबो जाती है I
खिलखिलाती है बचपन बन के
जवानी की रवानी भी दिखलाती है
जोश और होश का संगम बना कर
बुढ़ापे में ठहर जाती है I
कहीं खुशियों के मेले सजती है
तो कहीं ग़म की चादर बिछाती है
न आराम करती है कभी
न चैन से बसर करवाती है I
सोचता हूँ जो गहरायी से मैं इसे
कहाँ अक्ल में मेरे समाती है
देकर कोई बहाना फिर
ये भँवर में छोड़ चली जाती है I
Such a great philosophical description of life, a great poem.
बहुत सही कहा आपने. ज़िंदगी हमें दुःख-सुख, ग़म और खुशी, धूप छांव, रवानी व ठहराव के न जाने कितने रंग दिखाती हुयी हमें अपनी मंज़िले मक़सूद की ओर ले जा रही है. इस सब को आपने निहायत खूबसूरती के साथ अभिव्यक्त किया है. एक सुंदर कविता शेयर करने के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद, मो. आसिम जी. हज़ारों रूप में नज़र आती है जवानी.... जोश और होश का संगम बना कर बुढ़ापे में ठहर जाती है I
प्रिय राजनीशजी , मै आपका तहे दिल से सुक्रिया अदा करता हूँ की आपने इस कविता का सारांश बहुत की ख़ूबसूरती से पेश किया आपकी हौसला अफ़ज़ाई ने मुझे नित नए रूप में लिखने के लिए सदा प्रेरित किया है, बहुत बहुत धन्यवाद आपका
Han ye jeewan bhanwar hai jiske beech main ab zindagi jeene k lie zaroori tamam khwahishaton k lie sangharsh krte hain.....bahut khoobsoorat rachna.... :)
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A poem with philosophical back ground has been nicely presented. Many thanks.