अमल करना था जिस क़ुरआन की आयात पर हमको
उसे हमने फ़क़त अब तक दुआओं में पुकारा है
समझने की है हर बातें हर एक अलफ़ाज़ क़ुरआं की
ख़ुदा ने सिर्फ पढ़ने को नहीं क़ुरआं उतारा है
ये था दस्तूर ज़िन्दों का मगर अफ़सोस की है बात
बना मंशूर मुर्दों का और ताक़ों में संवारा है
इल्म का दर्स देता है संवर जाए जो आमिल हो
बे आमिल के ही हाथों में ये क्यों क़ुरआं हमारा है
तसख़ीर ए काएनात का तदरीस है इसमें
मदरसों के लिए ही बस नहीं क़ुरआं हमारा है
मुरदा क़ौम हो ज़िनदा किताबे आसमानी से
फ़क़त मुरदों की बख़शिश का नहीं हरगिज़ सिपारा है
अरे अल्लाह के बन्दे बता क्या कररहा है तू
ख़ुदा ने रैशनी बख़शी तू तारीकी का मारा है
: नादिर हसनैन
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem