वो बैठा था लोगों की उस भीड़ में अकेला
सा जैसे ब्राह्मणों में बैठा कोई अछूत।
लम्बे, गंदे, और बिखरे-उलझे बाल,
मैले कपड़े और शरीर पर जमी मैल कि परत
उँगलियों के बड़े-लंबे नाखूनों में भरा मैल,
दर्शा रहा था उसके हालातों को।
अपने सर को खिड़की की उस अधजंगी
रौड पर रखे वो ताक रहा था
सरपट दोडती दुनिया को।
उसकी बड़ी गोल थोड़ी धसी हुई सि
आंखे दर्शा रही थीं उसकी लालसा को।
हवा के तेज थपेड़े उसके चेहरे पर लगने
से उसकी आँख लगना, और
अगले ही पल झटका लगने से
खुल जाना बयां कर रहा था
उसकी थकान को।
थकान उन ज़िम्मेदारियों की, जो
इस खेलने-कूदने की उम्र में
उस पर आ गईं।
थकान खुली आंखो से देखे हुए
सपनों को पूरा करने की।
थकान उन ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की
जो समय ने समय से पहले ही उसके
कांधौं पर लाद दीं।
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