Pankh - पंख Poem by Abhaya Sharma

Pankh - पंख

आज फिर से पंख फैलाये दिशा में
बस उडा जाता हूं मैं
अपने ही मन में अमित को भाई माने
मान जतलाता हूं मै
उनकी आभा व्याप्त है संसार में
इस पे इतराता हूं मैं
बह रहा है खून जिसमें एक कवि के पुत्र का
बस झूमता कहता हूं मै
हे मेरे भगवन तुम्हारा धन्य हो जग में सदा
आज फिर जीता हूं मैं
अब नही है कोई सीमा ना कोई भी बांध है
आज फिर से नाचता गाता हूं मै
आज फिर से पंख फैलाये दिशा में
बस उडा जाता हूं मैं

अभय शर्मा, भारत 26 नवम्बर 2008 09.25 प्रातः भारतीय समयानुसार

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Abhaya Sharma

Abhaya Sharma

Bijnor, UP, India
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