क्या एहसास कराती थीवो दरख्त की छाओं
पल में सूरज की गर्मी पल में ठंडी हवा दिखती
वो बैठना खटिये पर पाओं लंबे पसार
वो रंग बिरंगी तितलियोंको ताकना बार बार
गुज़रतीबैल गाडी को दूर तक निहारना
गलेकी बजती घंटियों को अंत तक सुनना
कभी गिरते पत्तों को हवा में उड़ते देखना
कभी गिनना और उठाकर खटिये पर सजाना
चूल्हे में पक्ति रोटियों को सिकते हुए देखना
कोयले की आग को पानी से बुझाना
न लौटेगा वो बचपन न लौटेगी वो कहानी
न वो दरख्त की छाओं होगी, न हवा की रवानी
बदल गया सब वक़्त के साथ साथ अब
छूट गयी पतंग भी समय के हाथ अब
वक़्त मिलता नहीं, खटिया मिलतानहीं
बैल और घंटी अब ट्रेक्टर और धुँआ हो गए
न लौटेगा वो बचपन न लौटेगी वो कहानी, छूट गयी पतंग अब समय के हाथ bahut khub likha hai aapne..kash fir se pachpan laut aata
न लौटेगा वो बचपन न लौटेगी वो कहानी न वो दरख्त की छाओं होगी, न हवा की रवानी वाह वाह क्या कहने है.बचपन का दौर ही किआ दौर होता है. आता है याद मुझको गुजराहुवा ज़माना
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वो दरख्त की छाओं hame bhi yaad aati hai ab kya karen kaid hai char diwaron mein.