अंगदान Poem by VirendraVikram Singh

अंगदान

मुझे गुमान था अपने अमीरी पर
ख़रीदे है बहुत जमीर अपने अमीरी पर
बस अब मैं मुफ़्त में बिकना चाहता हूँ
किसी मुफ़लिस का सहारा ना बन सका अपने अमीरी पर
बस अब हर जरूरतमंद में नसों में बहना चाहता हूँ
ये जिंदगी तुझे मैं और जीना चाहता हूँ
इस रूह को हर बार प्यार होगा
अपने प्रियतम जिस्म से
मालूम है
जिंदगी के किसी स्टेशन पर
ठहरेगा जिस्म निकलेगी रूह
मालूम है
जिस्म के ट्रेन का मैं वो हिस्सा हूँ
जो दूसरी अधूरी ट्रेन से जुड़ना चाहता हूँ
बस
एक माँ को आँखें
एक बच्चे को दिल
एक अपाहिज का सहारा बनना चाहता हूँ
ये जिंदगी तुझे और जीना चाहता हूँ
बस एकइल्तजा है मेरी तुमसे
मेरे दोस्त
अब मैं
मुफ़्त में बिकना चाहता हूँ

Wednesday, November 29, 2017
Topic(s) of this poem: social behaviour
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