जिंदगी Poem by VirendraVikram Singh

जिंदगी

Rating: 5.0

गिरती बिखरती जिंदगी
लड़कर संभलती जिंदगी
ये जिंदगी हर मोड़ पर सजती संवरती जिंदगी,
शर्मोहया को छोड़कर
जी ले कुछ पल दिल खोलकर
ये ज़िन्दगी चन्द लम्हों की की
कुछ लम्हे रख ले बटोरकर
कभी शोहरतो में आसमान तो कभी जमीन
ये चढ़ती उतरती जिंदगी,
कंही बचपन तो कंही जवानी
कंही जिम्मेदारिया तो कंही नादानी
ये पहचानती मुकरती जिंदगी,
अगर की है दिलोजान से कोशिश
किसी चाँद को पकड़ने की
तो भूल मत,
कभी रूठी तो कभी होती अपनी ये जिंदगी,
ये जिंदगी सीखा है तुझसे
गिर कर उठना सम्भल कर चलना
कभी अपने लिए कभी औरो के लिए लड़ना
मासूम दिखती है दर्द में जीती ये जिंदगी,
कभी रुलाती कभी हँसाती
कभी गिराती कभी सिर चढ़ाती
ये जिंदगी दर्द की मारी
पर नन्ही और प्यारी ये जिंदगी

Monday, October 23, 2017
Topic(s) of this poem: life
COMMENTS OF THE POEM
Jazib Kamalvi 22 November 2017

A great start with a nice poem, Virendra. You may like to read my poem, Love and Lust. Thanks

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