शीशे में खुद को देख कर कितना इतराती है वो
खुद में खुद को जीति है खुद से शर्माती है वो
कल मिली थी कह रही थी बड़ी मशहूर गायका हूँ,
क्या बताऊँ उस पगली को मेरे ही लिखे गीत गाती है वो
महफ़िल में रुसवा करना फिर छुप कर देखना
उसकी अदा बताती है, कितना चाहती हैं वो
मेरा गुरुर मेरी ज़िद पर भारी है, मगर
सच कहूँ मुझे भी पसंद आती है वो
खुद्दार लहजे सब उम्मीदों में सिमट गए
ख्वाबों में रोज आती है वो, रोज जाती है वो
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