न जाने क्या हो गया है हमें
न जाने क्यों हो गया है हमें
जब संकट के बादल छाए हैं घने
और अंधेरों ने आ घेरा है हमें
बजाये इनसे लड़ने के
और डट कर सामना करने के
हम क्यों असंवेदनशील हो गए हैं?
एक हैं जो भीतर की लड़ाई लड़ रही है
जबकि जनता हाहाकार कर रही है
खोयी सत्ता को वापस पाने केलिए
वो लगे हैं जुगत जमाने के लिए
नेता भी नही स्थायी पास उनके
और करते हैं बेवजह सवाल चुनके
ख़ैर उनकी लुटिया भी डूबी है इसी वजह से
लेकिन अफ़सोस होता है उनपर
जिन्हे जनतानेभेजाहै चुनकर
वो भी तो सिर्फ बातें करते है जमकर
काम कोई किया नहीं ठोस अब तक
बताओ ऐसा चलेगा कब तक?
अब तो सब्र का बांध भी टूटने को है
जनता का गुस्सा भी फूटने को है
बातें और काम दोनोंकरते हैं मन की
पूछो सवाल तो देतेहै धमकी
आज जबकि बच्चों को खाने की चिंता है
वो खिलौनों की बात करते हैं
कितने असंवेदनशील हो गए हैं
I don't know this language but I think it should be a great poem. Thanks sharing.
जी बिलकुल असंवेदनशील हो चुके हैं सता के लालच में बाप, बेटा लड़ रहा है पल मे रिश्तों के मायने बदल जाते हैं कभी एक ही थाली में खाया करते थे अब थाली भी अलग - अलग कर जाते हैं धर्म की आड़ में मानवता को शर्मसार कर जाते हैं । बहुत चिन्ता जनक विषय को एक बेहतरीन रचना के द्वारा हम सब बताने के लिए आपका बहुत - बहुत आभार 10++
Ek gehra saach bakhoobi chitrit kiya hai aapne. Kab tak chalega... Dhanyawad.
जानत तो नेता चुनती है इस विश्वास पर के देश को आगे ले जाएंगे लेकिन ये तो देश को डुबोने चले है। कितनी बेरोज़गारी बढ़ गई है, कुछ भी तो सही नहीं है। सद अफसोस के हमें ये सब झेलना पड रहा है। दिल को दुखाने वाली रचना। १०++ सबके सामने इस मुद्दे को लाने के लिए।
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Bahut khoob. Political satire at its best.