तुम बारिश की बूंदों की तरह, हमेशा,
जिन्दगी की तपिश दूर करती रही,
मै अक्खड़ रेत जैसा, हर हवा के झोंके के साथ बिखरता गया,
जो तुम थी चंद लम्हात मुझमे समाई हुई, तब तलक ही तो थमा था मै,
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बोझिल पलकें लेकर अपनी, साँसे गिनता रहता हूँ.
सागर नहीं साथ मेरे पर, ख़ुद ही बहता रहता हूँ..
मै निर्जीव निकम्मा ना हूँ, और ना ही दास किसी का.
फिर भी वो जो कहते हैं, मै सब कुछ सहता रहता हूँ..
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सर्द धूप की ये तपिश सवाल करती है,
घास पे ओस की ये नमी सवाल करती है,
मुकम्मल है कोई जवाब दे, ना दे,
मगर हवा मकानों से सवाल करती है।
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बनकर आविनाशी बैठा हूँ, मै छणिक मृत्यु से कब डरता,
विस्मय का बोध भुजाओं में ले कर मै कब कब मरता,
वो धर्मं की चर्चा करते है, मैं अर्थ की चिंता करता हूँ,
वो दूत शांति के हैं तो क्या, मै तो असत्य का पालनकर्ता..........
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हमारे शहर में,
कुत्ते गाडियों में घूम रहे थे, भिखारी भगवान् की दुहाई दे रहा था,
गरीब गिडगिडा रहा था अपनी दिहाड़ी के लिए,
टीवी पर नेता जी देश बदल रहे थे,
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महत्व इर्ष्या का भी था, महत्त्व था प्रेम का भी, ये सूचित है हमें,
राग रंजित थे, श्रृंगार वर्जित थे, ये सूचित है हमें,
कुछ जातक जो विचित्र हो गए थे सत्ता के अहंकार में,
वो महत्वहीन मुर्दे है, तुम विचलित ना हो..............
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ना मै उसका भाग्यविधाता, ना मै उसका प्रेम प्रणेता,
ना विचलित उसकी यादों से, ना उसको अपना ह्रदय मैं देता,
फिर भी क्यूँ वो नजर बिछाए, मेरी रहें तकती है,
कब आ कर अपना लूँगा, ये सोच सोच के सजती है,
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पर कथा अब दुहराऊंगा, फिर व्यथा वही दिखलाऊंगा,
जो तडपाते है सबको, मै उनको तडपाउँगा.....
मै अग्निदूत, विष से विभूत, हर शोषक को मै हू डसता...
मै परम मूर्ख, दुःख से विभूत.... मै असत्य का पालनकर्ता..........
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खुशियों के इस शोर को, आज रहने दो।
भीगी हुई इस भोर को, आज रहने दो।
भाता नहीं है हमको संगीत इस शहर का,
तुम अपने दिल में ही, दिल की आवाज रहने दो।
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चलो आज फिर से तुम्हे भूलने की कोशिश करते है,
अकेली शामो में,
खामोश कोहरे को,
हलके कदमो से आहट देने की मंजूरी देते है,
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मृत्यु को इतने निकट से महसूस करना कभी कितना जटिल लगता था,
तब जीवन कितना अंतहीन, स्वस्थ और सहज लगता था,
प्रतीत होती थी भावनाए स्वच्छ सरिता जैसी,
और मै, सतत, अविरल सा बहता था।
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अर्थहीन जीवन,
व्याकुल मन, कष्ट के गीत, कहकहे सुनाते हैं,
कहते है हमसे,
चलो आज,
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खानाबदोश
तुम बारिश की बूंदों की तरह, हमेशा,
जिन्दगी की तपिश दूर करती रही,
मै अक्खड़ रेत जैसा, हर हवा के झोंके के साथ बिखरता गया,
जो तुम थी चंद लम्हात मुझमे समाई हुई, तब तलक ही तो थमा था मै,
तुम उन बचपन की यादों के जैसी, जो यूँ तो धुंधली है,
न जाने कितनी सच्ची है, मगर जब भी चली आती है,
तो अपने साथ वो मासूम, निर्दोष, सच्ची सी, कच्ची सी,
मुस्कान भी ले आती है.... और मन की गहराईयों में हल्का सा...एक इत्मिनान....
और मै अकेले उन दरख्तों के जैसा, जो लगता है की बहुत ऊंचे है.. और हैं भी बहुत ऊंचे.... सब को लगता है... कि
आसमान चूमते रहते है.... मगर
हकीकत में जितने दूर जमीन से है... आसमानों से भी उतने ही पराये है....
उनके दमन में केवल खानाबदोश सी हवाएं है............
Ashishji aap hamesha likhte rahiye humein apki astaya kie palankarta kafi pasand hai Hum aur aapke likhi hui kavitaye padna chahyege.. Urs fan Vrushali Nair Mumbai
Nice poems i love it